मैं फँसा बड़ी दुविधा में
हूँ
कोई आकर हल कर दे
रे,
मेरे प्रियजन हैं
एक तरफ
औ’ एक तरफ तू है
मदिरे।
सब के सब मुझे
रोकने को
सम्मुख मेरे हैं
आज खड़े
मैं कैसे करूँ
अवज्ञा इनकी
ये हैं मेरे
पूज्य बड़े।
मैं नहीं चाहता
वह मतवालापन
जिससे इनको दुख
हो,
मैं देकर कष्ट इन्हें
पी सकता नहीं
के चाहे जो कुछ
हो।
जब ऐसे वचन कहे
मैंने
निज हाथों में
प्याला लेकर,
तब प्रकट हुए
मधुदेव
सहस्रों हाथों
में हाला लेकर।
औ’ मुझसे कहने
लगे वत्स
तुझको यह मोह हुआ
कैसे
तू तो था वीर
तुझे यह
कायर वाला रोग
लगा कैसे।
इसलिए त्याग दे
दुर्बलता
उठ पुनः थाम अपना
प्याला,
बनता हूँ साकी
तेरा मैं
तुझको देता अमृत
हाला।
क्षणभंगुर है
तेरा तन मन
है पल भर का तेरा
जीवन
पर प्रेम तेरा
मदिरा से अद्भुत
अजर अमर अनंत
पावन।
मदिरा में कुछ भी
बुरा नहीं
है छिपी बुराई
अंतर में
मदिरा केवल बाहर
लाती
छिपकर जो बैठा
अंदर में।
या तुझको परमानंद
मिलेगा
जब पी लेगा तू छककर
या दुख जो छिपकर
बैठा है
अंतर में, आएगा
बाहर।
तू नहीं पिएगा आज
अगर
जीवन भर दुख से
तड़पेगा
तेरे प्रियजन सब
साथ रहेंगे
पर मदिरा को
तरसेगा।
बहुत खूब.....
ReplyDeleteअनु
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ReplyDeleteधन वैभव दें लक्ष्मी , सरस्वती दें ज्ञान ।
गणपति जी संकट हरें,मिले नेह सम्मान ।।
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दीपावली पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं
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अरुण कुमार निगम एवं निगम परिवार
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बहुत बढ़िया
ReplyDeleteताकतवर कलम लगती है ..
ReplyDeleteशुभकामनायें !
बेहद रोचक रचना है सज्जन जी,,,आपने मदिरा का सहारा लेकर सत्यता से परिचय कराया है......ऐसी ही रचनाओं को अब शब्दनगरी आप में भी प्रकाशित कर सकतें हैं....
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