Wednesday, December 23, 2009

(३६)

जहाँ बहा करतीं थीं नदियाँ,
मधु की हे हर देख जरा;
तेरा भोग लगाने को भी,
ना अब मिलती है मदिरा।

फिर से इक लट जटाजूट
की लटका दे पीकर हाला,
मधु-गंगा की प्रेम-धार से
जगत बने फिर मधुशाला।

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