Wednesday, December 23, 2009

(५५)

गुरुदेव मेरे हैं चिर अतृप्त,
पीकर असंख्य मधु-सुधा-सिन्धु;
कैसे उनको संतुष्ट करूँ, मैं हूँ
मधु का अतिसूक्ष्म बिन्दु।

मैं उनकी तृषा बढ़ाऊँगा ही,
फिर भी होकर मतवाला;
अर्पित करता निज हृदय और
भावों की कोमल मधुशाला।

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